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पॉलिटिक्स प्राइवेट लिमिटेड भारतीय लोकतंत्र की उस सच्चाई को उजागर करती है जहाँ राजनीति अब सेवा का माध्यम नहीं, बल्कि मुनाफ़े का धंधा बन चुकी है। यह किताब नेताओं के उन नकली चेहरों को उतारती है, जो चुनाव से पहले जनता के सेवक और चुनाव के बाद सत्ता के सौदागर बन जाते हैं। लेखक राजनीति को एक “प्राइवेट लिमिटेड कंपनी” के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जहाँ जनता ग्राहक है, चुनाव पूंजी निवेश है, और मंत्रालय मुनाफ़े का ज़रिया। किस तरह वादे महज़ जुमले बन जाते हैं, घोटाले सामान्य हो जाते हैं और सत्ता का मकसद सेवा नहीं बल्कि प्रबंधन रह जाता है, यह पुस्तक बड़ी बेबाकी से बताती है।

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