किरनों की धूल
“तक़रीबन हर रुबाइ एक मंज़र है” ٭٭٭ ‘डॉ. तासीर’ साहब की रुबाइयात का मजमूअ देखने को मिला। रुबाइयात ख़्वास के हलक़ों में एक मशहूर सिनफ़-ए-सुख़्न होने के बावजूद लिखने में ज़ियादा मशहूर कभी नहीं रही जिसकी वजह उसके मुश्किल और मख़्सूस औज़ान हैं। मौज़ू’आत की सतह पर भी इसे तख़सीस हासिल रही। मज़हब के अलावा, तसव्वुफ़, मा’रिफ़त और इश्क़ के मौज़ू’आती दायरों में रहने वाली इस सिन्फ़ का दूसरा तुर्रे-ए-इम्तियाज़ उसका लिसानी शिकवा है। ज़बान के करोफ़र के साथ रफ़अ’त-ए-ख़याल का एहतिमाम रुबाइयात को उसके उस्लूबियाती ख़द ओ ख़ाल अता करता है। “तासीर सिद्दीक़ी” साहब की रुबाइयात ने मुझे इस लिहाज़ से चौंका दिया है कि सिवाए रुबाइ की मख़्सूस बहर की पाबंदी के उन्होंने ज़बान, क्राफ़्ट और मौज़ू’अ, हर सतह पर मुरव्वज-ए -उस्लूब से गुरेज़ करते हुए अपनी रुबाइयात को सहल-ए-मुमतना’का पैरहन अता किया है।उनके सादा अल्फ़ाज़,सादा मज़ामिन और सादा तर्ज़-ए-बयान से रुबाइय में एक ताज़गी और कुशादगी का एहसास हुआ है। एक ख़ास बात जो उनकी रुबाइयात की ख़ुबी क़रार दी जा सकती है वो उनकी मंज़रनिगारी है। तक़रीबन हर रुबाइ एक मंज़र है जिस के ज़रिए शायर ने ज़ियादा तर सामने के मौज़ू’आत को निहायत ही सहूलत और हल्के फूल्के अंदाज़ में बर्ता है जबकि कहीं कहीं मा’नवी परतें भी पैदा की हैं। मुझे इस बात से ज़ियादा ख़ुशी हुई है कि, कम-अज़-कम किसी ने तो इतनी भारी भरकम सिनफ़-ए-सुख़्न में मौज़ू’आत और बयान की सहल कारी को रिवाज देने की तरफ़ क़दम बढ़ाया है। – फ़रहत अब्बास शाह- (पाकिस्तान)
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